Rashtriya Pioneer Pride: क्या मंदिर जाना ही धार्मिक होने का प्रमाण है? क्या मंदिर जाना ही धार्मिक होने का प्रमाण है? ================================================================================ Dilip Thakur on 04/09/2019 16:03:00 ‘वर्तमान समय में जैन समाज में चतुर्विध संघ की भूमिका’ विषय पर परिचर्चा - डॉ. प्रमोद कुमार जैन ‘वर्तमान समय में जैन समाज में चतुर्विध संघ की भूमिका’ इस विषय पर आज जो परिचर्चा आयोजित की गई है जिसमें मुझे सहभागी बनाया गया है, मैं इसके लिए आभारी हूं। मैं अपने आपको इतना परिपक्व नहीं मानता कि मैं भगवान महावीर द्वारा स्थापित चतुर्विध संघ जिसका उद्देश्य जैन धर्म की मूल भावनाओं को जन-जन तक पहुंचाना, जैन धर्म को सुरक्षित करना, जैन धर्म का विस्तार करना है उस पर कोई प्रश्नचिन्ह लगाऊं। हजारों साल पूर्व बनी इस व्यवस्था के कारण ही आज जैन धर्म सामाजिक जीवन में अपना स्थान बनाए हुए है। जैन धर्म बहुत गहरा व गूढ़ है और साथ ही सरल भी है। यह भावना प्रधान है, कर्म के सिद्धांत प्रतिपादित करता है और इसका मूल मंत्र है- परस्परो ग्रह जीवानाम। भगवान महावीर का संदेश- जीओ और जीने दो, दया, धर्म, करुणा, परिग्रह, समता, संयम आदि व्यक्तिगत गुणों पर केंद्रित है। पूरे धर्म का मूल उद्देश्य है कि हम स्वयं को पहचानें, स्वयं को बदलें। आज का समय तकनीक का है। आज विकास का मतलब है अर्थ व्यवस्था में बढ़ोतरी। आर्थिक युग में अर्थ के प्रति राग अत्यधिक है और इन सब का असर हमारी धार्मिक व्यवस्थाओं पर भी पड़ा है। कहीं न कहीं हम धर्म की मूल भावना से विचलित हुए हैं। धर्म का अर्थ क्या है... तपस्या करना, स्वाध्याय करना, कंद मूल का त्याग करना है? क्या सामायिक, प्रतिक्रमण और यात्रा करना है? असल में इन चीजों का उद्देश्य अपने स्वभाव को पाना है लेकिन अक्सर लोग जीवन भर ये क्रियाएं करते हैं और इसे ही धर्म बना लेते हैं। आज धार्मिकता की क्या पहचान है जो मंदिर जाता है और उपरोक्त वर्णित क्रियाओं को करता है लेकिन क्या वह सही मायने में धार्मिक है? क्या ऐसे लोग अपने अहंकार को छोड़ कर सरल बन जातें हैं? ईर्ष्या को छोड़कर उदार बन जाते हैं? ऐसा नहीं होता क्योंकि व्यक्ति र्धािमक क्रियाएं तो करता है लेकिन स्वभाव में परिवर्तन नहीं लाता, ऐसी स्थिति में कठोर सच्चाई यही है कि कोई भी भगवान, गुरु, धर्म या धर्म संघ कुछ भी भला नहीं कर पाता। आवश्यकता है सबसे पहले अपने आप को बदलें, स्वभाव को बदलें, भाव को बदलें तभी सही अर्थ में परिणाम मिलेगा। दुर्भाग्य यह है कि हम भगवान महावीरजी ‘को’ तो मानते हैं लेकिन महावीरजी ‘की’ नहीं मानते। आज समस्त जैन समाज और हमारे धर्म के पुरोधा धर्म के नाम पर नए-नए धार्मिक स्थल बनाते जा रहे हैं। करोड़ों रुपए का विनिमय हो रहा है और पहले के बनाए हुए धार्मिक स्थल उपेक्षित हैं। बड़े-बड़े आयोजन हो रहे हैं अलग-अलग तथाकथित धार्मिक उद्देश्यों से। अलग-अलग चीज, अलग-अलग क्रियाओं की आॅक्शन (नीलामी) होती है और उसमें तथाकथित धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत अमीर लोग बढ़-चढ़कर अपने अहंकार का प्रदर्शन करते हैं और उनके अहंकार की तुष्टि मंच पर आसीन परम आदरणीय व्यक्तित्व के धनी, समाज के एवं धर्म के कर्णधार करते हैं। इन आयोजनों पर पैसा व समय दोनों बहुलता से खर्च होता है। इसमें क्रियाएं भी होती हैं लेकिन क्या यह जैन धर्म की मूल भावनाओं के अनुकूल है यह सोचने का विषय है। जनसंख्या के अनुसार जैन धर्मावलंबियों की संख्या भारतवर्ष में 1 प्रतिशत से भी कम है इसलिए जैन धर्म का विस्तार जनसंख्या के आधार पर नहीं किया जाता। यहां मैं एक बात और कहना चाहूंगा कि इन आडम्बरों को देखकर बुद्धिजीवी वर्ग (एजुकेटेड मास) तार्किक रूप से जैन समाज से दूर होता जा रहा है। उसे यह समझ नहीं आता कि आज समाज की आवश्यकता यह है- 1- गरीबों की सहायता 2- असहायों की सहायता 3- अस्पताल खोल कर मरीजों की सेवा 4- स्कूल खोलकर शिक्षा के क्षेत्र में जनमानस को शिक्षित करना, बढ़ावा देना। यह सब अगर उन पैसों से किया जाए जो हम उपरोक्तानुसार धार्मिक आयोजनों में खर्च करते हैं तो हम धर्म की मूल भावनाओं को आगे बढ़ाने में निश्चित रूप से सफल होंगे। आज अगर हम इंदौर शहर का अथवा जयपुर शहर का उदाहरण लें जहां जैन समाज के लोग बड़ी संख्या में हैं और आर्थिक रूप से संपन्न भी हैं लेकिन इन लोगों ने सामाजिक उत्थान के कार्य के तहत कितने स्कूल-कॉलेज खोले हैं यह सर्वविदित है। हम अपने बच्चों के एडमिशन के लिए दूसरों के द्वारा चलाई गई संस्थाओं पर आश्रित हैं। मेरा ऐसा मानना है कि हमारे धर्म के पुरोधा साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका जो चतुर्विध संघ के स्तम्भ हैं अगर वे समाज को दिशानिर्देश दें और उनकी सोच को इस दिशा में डालें तो निश्चित रूप से समाज का भला होगा। एक समय था जब कोई व्यक्ति अपने नाम के आगे जैन लगाता था तो दूसरे समाज के लोग यह विचार रखते थे कि वह रात्रि भोजन नहीं करता, छना हुआ पानी पीता है, मंदिर जाता है, झूठ नहीं बोलता, मिलावट नहीं करता। क्या आज कोई ऐसी भावना जैन के प्रति रख पाता है? क्या कारण रहा इस गिरावट का, कौन इसके प्रति जिम्मेदार है यह सोचनीय है। आज समाज हमारे साधु मुनि की बात कितनी मानता है या उनकी बात का जन-मानस के पटल पर कितना असर होता है यह भी सोचनीय है। ऐसी गिरावट क्यों आई? जैन धर्म का एक मूल तत्व है अपरिग्रह, क्या इस तत्व को हम अपनी जीवन शैली में समाहित कर पा रहे हैं। इस मंच से मेरा एकमात्र यह कहना है कि जैन धर्म के मूल तत्व, उसकी मूल भावना को सही रूप से जनमानस तक कैसे पहुंचाया जाए, इस पर कार्य होना चाहिए और आज के समय के अनुसार धन का सदुपयोग जन उपयोगी कार्यों में कैसे करें ऐसी सोच बनाएं। मैं यहां उपस्थित सभी लोगों से करबद्ध माफी चाहूंगा। यदि छोटे मुंह बड़ी बात की हो या मैने कहीं अतिश्योक्तिपूर्वक कोई ऐसी बात कही हो जिससे किसी को ठेस पहुंची हो। मैंने बहुत सारे शास्त्रों का न तो अध्ययन किया है और न ही मुझे संस्कृत व प्राकृत भाषा आती है। मेरी पीएचडी जो कि जैन धर्म पर आधारित है उस समय मैंने जैन साहित्य का अध्ययन किया तो पाया कि यह धर्म, धर्म न होकर जीवन जीने का तरीका सिखाता है और सभी प्राणियों के प्रति एक भाव है- जीयो और जीने दो। यह एक महान धर्म है और भाव प्रधान है। यहां पर मन में भाव आने से ही कर्म बंध हो जाता है। (उक्त विचार पर्वाधिराज पर्यूषण पर्व के तहत वर्द्धमान जैन स्थानकवासी श्वेताम्बर संघ, महालक्ष्मी नगर, इंदौर में आयोजित कार्यक्रम में डॉॅ. प्रमोद कुमार जैन चेअरमेन पायोनियर ग्रुप और चीफ एडिटर राष्ट्रीय पायोनियर प्राइड ने व्यक्त किए)