कलाओं के प्रस्तुतिकरण के दौरान कलाकार के व्यक्तित्व और विचारों का प्रभाव

कलाएं व्यक्ति को इंसान बनाती है...हम मनुष्यता की बात बहुत करते है पर असल में कलाएं ही है जो मनुष्य को उसके वजूद का एहसास करवाती है। कलाएं मनुष्य को आदिम युग से प्रभावित करती आ रही है चाहे आदि मानव की गुफाओं के भित्ती चित्र हो या उस समय के उनके अपने संगीत की बात हो कलाए आनंद का पर्याय है कलाएं व्यक्ति को भीतर से बदलाव के लिए प्रेरित करती है और व्यक्ति को अपने आप से संवाद का मौका देती है। ऐसा संवाद जो व्यक्ति को स्वयं को परिभाषित करता है और मैं की तरफ ले जाती है। आदिम युग से मध्ययुगीन बाते की जाए तब उस समय के माहौल और परिवेश का असर उस समय के संगीत और अन्य कलाओं पर पड़ा है और उसके कारण संगीत और कलाए समृद्ध हुई है। कलाओं के विभिन्न आयामों पर नजर डाली जाए तब हमें यह पता चलता है कि लगातार बदलाव होते आए है यह बदलाव अपने आप में काफी बड़े रहे है। इसमें तात्कालिक राजनैतिक,आर्थिक और सामाजिक बदलावों का भी असर काफी पड़ा है और वर्तमान में जो कलाओं का स्वरुप हमारे सामने नजर आ रहा है वह निश्चित रुप से समृद्ध है ऐसा हमारा मानना है। पर यह एक नजरिया हो गया क्योंकि इसे हम ही कह रहे है क्योंकि हम लोगो में से ही कलाकार पैदा होते है और हम ही लोग इसे सुनते है और अब तक जो भी बदलाव होते है आए है उसे कलाकार और दर्शक दोनों के परिप्रेक्ष्य में देखा जरुर गया है परंतु इसमें कलाकार ही हावी रहा है खासतौर पर संगीत के क्षेत्र में ऐसा ही होता हुआ नजर आया है। एक कलाकार किस परिस्थिति में संगीत की प्रस्तुति दे रहा है यह बहुत कुछ उसके उस समय की मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है और बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि वह कलाकार किस परिवेश से आया है और उस समय वह किन परिस्थितियों में कार्यक्रम दे रहा है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसके मन मे विचारों का प्रवाह किस प्रकार का चल रहा है और इन विचारों के प्रवाह के साथ वह प्रस्तुति के साथ अपने आप को कितना जोड़ पा रहा है। विचारों का प्रस्तुतिकरण पर कितना और कैसा प्रभाव पड़ रहा है? क्या वह विचारों के प्रवाहों को अपनी प्रस्तुति से सकारात्मक रुप से जोड़ पा रहा है? क्या कलाकार के मन में आ रहे सकारात्मक विचार अच्छे कार्यक्रम या प्रस्तुति होने की ग्यारंटी है? एक कलाकार को किस मानसिकता और कैसे विचारों को अंगीकार कर प्रस्तुति देना चाहिए ताकि सुरों की कोमलता,मधुरता और सच्चापन पूर्णता के साथ दर्शको तक पहुंचे। क्या कलाकार को प्रस्तुति देने के दौरान अपने आप को पूर्णता के साथ और मन और कर्म दोनों से प्रस्तुतिकरण के साथ एकाकार नहीं हो जाना चाहिए? भारतीय शास्त्रीय संगीत अपने आप में पूर्ण ब्रह्म है और यही कारण है कि वैदिक काल से अब तक इसकी गंभीरता और मधुरता में किसी भी प्रकार का असर नहीं पड़ा है। पाश्चात्य संगीत ने भारतीय उपमहाद्वीप पर असर जरुर डाला है पर इन सभी के बीच भारतीय शास्त्रीय संगीत कीचड़ में कमल की तरह अपनी आभा बिखेर रहा है और इसकी गौरवमयी उपस्थिति हमारी आत्माओं को भीतर तक संतृप्त कर रही है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की छवि ऐसी बनी है कि ऐसा संगीत जिसमें शास्त्र है और सही भी है कि कुछ नियम कायदों के साथ प्रस्तुति देने पर कानों में अमृत घुलता है तब इसके आनंद के लिए हम नियम कानून भी माने। भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रस्तुतिकरण के दौरान कलाकार और दर्शक के बीच तादात्म बेहद शानदार तरीके से बनता है पर इसके कोई नियम नहीं है या यूं कहे कि यह अलिखित समझौता है कि कलाकार की प्रस्तुति से अगर दर्शक प्रभावित होता है तब वह तालियों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति देगा। पर क्या कलाकार वाकई इन तालियों से खुश होता है या फिर मन ही मन यह सोचता है कि मैं इससे अच्छा प्रस्तुत कर सकता था या वाकई मैैंने अच्छी प्रस्तुति दी है। दर्शको ने तो अभिव्यक्ति दे दी पर कलाकार केवल अपनी प्रस्तुति को ओर अच्छा बनाकर प्रतिक्रिया दे सकता है पर इन अभिव्यक्तियों के आदान प्रदान के बीच भारतीय शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुति दे रहे कलाकार के मानस को पढ़ने का कोई प्रयास नहीं करता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत मंचीय प्रस्तुति के लिए काफी रियाज,मेहनत, आत्मविश्वास मांगता है और इन सभी की तैयारी होने पर भी गुरु का आशीर्वाद और प्रस्तुति के दिन की परिस्थितियां भी काफी मायने रखती है। एक भारतीय शास्त्रीय संगीत के कलाकार के व्यक्तित्व में एकरुपता होना चाहिए या प्रत्येक गायक,वादक कलाकारों को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व में तालमेल परिस्थितियों के अनुसार रखना चाहिए। किस प्रकार के विचारों का प्रवाहों से गुजरना होगा ताकि प्रस्तुति में कला और कलाकार एकाकार हो जाए...कला अभिव्यक्ति की चरमता को प्राप्त करने के लिए उसे क्या करना होगा ? क्या कलाकार को प्रत्येक प्रस्तुति के दौरान एक जैसे विचारों के प्रवाहों पर से गुजरना चाहिए या कला के मर्म को समझकर अपने मन और कला के मर्म को एक धागे में पिरोने के लिए प्रयास करने चाहिए? कला की प्रस्तुति रियाजÞ के अलावा एक ऐसी मानसिकता की मांग करती है जिसमें दर्शको के व्यवहार तथा किस प्रकार के दर्शक उपस्थित है यह समझना और उसी अनुरुप अपनी प्रस्तुति को दिशा देना शामिल है। कलाकार को निराकार सुरों को आकार में ढालना होता है सुरों की शुद्धता का ख्याल रखकर दर्शकों को न केवल प्रभावित करना होता है बल्कि आत्मसंतृप्ति से लेकर आनंद से परमानंद की ओर ले जाना होता है। कई बार कलाकार का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली होता है जिससे दर्शक सम्मोहित हो जाते है इस कारण कलाकार अपने पहनावे पर काफी ध्यान देते है। इसके अलावा यह बात निश्चित है कि एक कलाकार का स्वभाव व उसका व्यक्तित्व प्रस्तुति के दौरान काफी मायने रखता है और आज के इस आधुनिक युग में प्रत्येक युवा कलाकार को इस बात का ध्यान जरुर रखना चाहिए क्योंकि एक संपूर्ण कलाकार के लिए शानदार व्यक्तित्व और सहज सरल स्वभाव का होना बेहद जरुरी है।