ऐसे समय में राजनीतिक नेतृत्व अनजान क्यों बन जाता है?

इंदौर। वोट मांगते समय नेता व्यापारियों की दुकानों और ओटलों पर बैठ कर मान मनुहार करते हैं परंतु जब व्यापारी को जरुरत होती है तब कभी भी राजनीतिक नेतृत्व आगे नहीं आता। गोपाल मंदिर क्षेत्र की दुकानें हटाने के दौरान केवल सांसद स्पीकर सुमित्रा महाजन ने यह कहा कि पहले वैकल्पिक व्यवस्था करें परंतु इसके अलावा अन्य राजनीतिक नेतृत्वों को जैसे सांप ही सूंघ गया था। क्या कारण है कि सत्तापक्ष जब अतिक्रमण हटाने की बात आती है तब चुप हो जाता है, मौन साधना में लग जाता है, अगर उनके समर्थक हों तब सड़क पर धरने की बात भी सामने आ जाती है परंतु जब भोले-भाले लोग हों तो सभी पल्ला झाड़ लेते हैं। किशोर कोडवानी जैसे सामाजिक कार्यकर्ता विरोध का नेतृत्व अपने हाथ में ले लेते हैं जबकि कांग्रेस के लिए यह मुद्दा हो सकता था पर कांग्रेसियों ने इस मुद्दे पर भी मौन साध लिया कि कौन जाए, कौन रविवार की सुबह बिगाड़े। वैसे बेकार से मुद्दों पर मोर्चा निकाल कर और गले में सब्जियों की मालाएं पहनकर मीडिया में सुर्खियां बंटोरने वाले ढेर सारे नेता कांग्रेस में मौजूद हैं पर यह असल में लोगों की पीड़ा थी परंतु कोई राजनीतिक नेतृत्व आगे नहीं आया और इन व्यापारियों की नहीं सुनी गई। नगर निगम को दोष इतना जरुर दे सकते हैं कि व्यापारियों को और समय देना चाहिए था परंतु व्यापारियों की नाराजगी अब सीधे रुप से राजनीतिक नेतृत्व पर ही है और विपक्षी दल कांग्रेस पर भी है। क्या कांग्रेस से कोई भी ऐसा दमदार नेता नहीं था जो इनकी आवाज उठाता याने राजनीतिक रुप से खालीपन कितना है इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है। व्यापारी वर्ग ने कांग्रेस या भाजपा किसे वोट दिया यह भी मायने रखता है अगर भाजपा के कट्टर समर्थक होते तो ऐसा होता ही नहीं और अगर भाजपा को वोट दे दिया है तब कांग्रेस वाले उधर देखेंगे ही नहीं। पर राजनीति अवसर देती है और यह अवसर कांग्रेस के पास था जिसे यूं ही गंवा दिया गया। 
गोपाल मंदिर के व्यापारियों के हटने के बाद निश्चित रुप से क्षेत्र अच्छा दिखेगा और साफ स्वच्छ वातावरण भी होगा पर जो लोग पचास वर्षों से यहां पर दुकाने लगा रहे थे उनकी दुकानें राजवाड़ा में जब आग लगी थी तब भी जली थीं और तब भी वहीं थी और उसके बाद भी वहीं लगी रहीं। इतना ही था तब उसके बाद हटाने की बात उठती। उसके बाद भी नहीं हटीं और लगती रहीं। ट्रैफिक जाम होता रहता था और नो व्हीकल झोन भी बनते रहे परंतु हटाने की बात नहीं आई। अब जबकि पचास वर्षों बाद हटाना था तब पहले वैकल्पिक जगह तो देना थी। इस संपूर्ण मामले से यह साबित होता है कि शहर में विपक्ष कितना कंगाल हो चुका है।